संगीत की महान संस्था से मेरा जुड़ाव :
भातखण्डे संगीत संस्था ,लखनऊ ,उत्तर प्रदेश,भारत की एक अत्यंत प्रसिद्ध एवं सम्मानित हिंदुस्तानी संगीत सिखाने का विध्यालय 1926 से रहा जिसे वर्ष 2002 में यूनिवर्सिटी का दरजा प्राप्त हुआ । इस संस्था से बहुत से विश्वविख्यात कलाकार हुए हैं जिनका नाम संगीत के क्षेत्र में बहुत सम्मान से लिया जाता रहा है । आज इस विश्वविध्यालय से पढ़ कर निकले अनेक छात्र हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से सम्बंधित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं ।
अपने पिछले पोस्ट्स में मैंने अपनी संगीत यात्रा के उस समय का ज़िक्र किया जब मैंने स्वयं से ही गाने-बजाने का शौक़ छोटी सी उम्र में कर लिया था । बग़ैर किसी दिशादर्शन के व स्वयं के ढूंढे रास्तों से होता हुआ मैं संगीत का रियाज़ करता रहा । ख़ुद से ही दिल्ली के बाल-भवन से जुड़ा तो वहाँ बोंगो ,सितार सीखा पर कुछ समय ही । फ़िर कुछ वर्ष बाद दिल्ली में ही कनाट -सर्कस में स्थित गन्धर्व विद्यालय में लगभग दो तीन महीने हवाईयन गिटार बजाना सीखा । एकाध महिने ही मैंने गीत भजन गाने का मार्गदर्शन दिल्ली रेडियो के उस वक्त के "बाल-कार्यक्रम" के इंचार्ज के घर पर जाकर भी सीखा । फिर कई लम्बे अर्से तक में ख़ुद के रियाज़ व रेडियो ,टीवी या टेप-रिकॉर्डर पर बजने वाले संगीत को सुन सुन कर ज्ञान अर्जित करता रहा । तब मैं क्या ग़लत या क्या सही गाता-बजाता था उसका कोई आंकलन नहीं था क्यूंकि मैं स्वयं का प्रदर्शन भी बहुत कम ही करता था । हाँ ,ग्यारहवीं कक्षा तक स्कूल में होने वाले प्रार्थना के लिए मुझे ही चुना जाता था पर चूँकि उस समय स्कूलों में फ़िल्मी गाने नहीं चलते थे सो वो अवसर भी नहीं मिलता था कि हम औरों के सामने गीत वगेरह गा संके ।
१९७३ में जब मैंने सैंट-स्टीफन्स दिल्ली में दाखिला लिया तो वहाँ के माहौल से प्रभावित होकर अंग्रेजी गानों कि तरफ भी झुकाव बना ,पर सम्भवता 1974 में स्टीफन्स की तरफ़ से दिल्ली के दुसरे कालेजों में गज़ल प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लेने कि वज़ह से में धीरे -धीरे ग़ज़लों के क्षेत्र में प्रविष्ठ हो गया । हल्की-फ़ुल्की ग़ज़लों से शुरू हुई मेरी ये संगीत यात्रा मुझे स्वतः ही ग़ज़ल-सम्राट मेहँदी हसन खान साहिब व बाद में जनाब गुलाम अली के गायन कि तरफ़ ले चला । अब ये तो हर कोई जानता है कि इन दोनों उस्तादों की ग़ज़लें बिना शास्त्रीय संगीत के इल्म के होना कठिन है\।
तो ग़ज़लों के इस इम्तहान ने मुझे ये प्रेरित किया कि मैं शास्त्रीय गाने की शिक्षा लूं ताकि उनकी ग़ज़लों को कुछ ढंग से गा सकूँ ।
क्रमशः। ....
भातखण्डे संगीत संस्था ,लखनऊ ,उत्तर प्रदेश,भारत की एक अत्यंत प्रसिद्ध एवं सम्मानित हिंदुस्तानी संगीत सिखाने का विध्यालय 1926 से रहा जिसे वर्ष 2002 में यूनिवर्सिटी का दरजा प्राप्त हुआ । इस संस्था से बहुत से विश्वविख्यात कलाकार हुए हैं जिनका नाम संगीत के क्षेत्र में बहुत सम्मान से लिया जाता रहा है । आज इस विश्वविध्यालय से पढ़ कर निकले अनेक छात्र हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से सम्बंधित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं ।
अपने पिछले पोस्ट्स में मैंने अपनी संगीत यात्रा के उस समय का ज़िक्र किया जब मैंने स्वयं से ही गाने-बजाने का शौक़ छोटी सी उम्र में कर लिया था । बग़ैर किसी दिशादर्शन के व स्वयं के ढूंढे रास्तों से होता हुआ मैं संगीत का रियाज़ करता रहा । ख़ुद से ही दिल्ली के बाल-भवन से जुड़ा तो वहाँ बोंगो ,सितार सीखा पर कुछ समय ही । फ़िर कुछ वर्ष बाद दिल्ली में ही कनाट -सर्कस में स्थित गन्धर्व विद्यालय में लगभग दो तीन महीने हवाईयन गिटार बजाना सीखा । एकाध महिने ही मैंने गीत भजन गाने का मार्गदर्शन दिल्ली रेडियो के उस वक्त के "बाल-कार्यक्रम" के इंचार्ज के घर पर जाकर भी सीखा । फिर कई लम्बे अर्से तक में ख़ुद के रियाज़ व रेडियो ,टीवी या टेप-रिकॉर्डर पर बजने वाले संगीत को सुन सुन कर ज्ञान अर्जित करता रहा । तब मैं क्या ग़लत या क्या सही गाता-बजाता था उसका कोई आंकलन नहीं था क्यूंकि मैं स्वयं का प्रदर्शन भी बहुत कम ही करता था । हाँ ,ग्यारहवीं कक्षा तक स्कूल में होने वाले प्रार्थना के लिए मुझे ही चुना जाता था पर चूँकि उस समय स्कूलों में फ़िल्मी गाने नहीं चलते थे सो वो अवसर भी नहीं मिलता था कि हम औरों के सामने गीत वगेरह गा संके ।
१९७३ में जब मैंने सैंट-स्टीफन्स दिल्ली में दाखिला लिया तो वहाँ के माहौल से प्रभावित होकर अंग्रेजी गानों कि तरफ भी झुकाव बना ,पर सम्भवता 1974 में स्टीफन्स की तरफ़ से दिल्ली के दुसरे कालेजों में गज़ल प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लेने कि वज़ह से में धीरे -धीरे ग़ज़लों के क्षेत्र में प्रविष्ठ हो गया । हल्की-फ़ुल्की ग़ज़लों से शुरू हुई मेरी ये संगीत यात्रा मुझे स्वतः ही ग़ज़ल-सम्राट मेहँदी हसन खान साहिब व बाद में जनाब गुलाम अली के गायन कि तरफ़ ले चला । अब ये तो हर कोई जानता है कि इन दोनों उस्तादों की ग़ज़लें बिना शास्त्रीय संगीत के इल्म के होना कठिन है\।
तो ग़ज़लों के इस इम्तहान ने मुझे ये प्रेरित किया कि मैं शास्त्रीय गाने की शिक्षा लूं ताकि उनकी ग़ज़लों को कुछ ढंग से गा सकूँ ।
क्रमशः। ....
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