मेरे संगीत गुरु जन
मेरी संगीत यात्रा उम्र के उस पड़ाव से ही प्रारंभ हो गई थी जब से मैंने होश संभालना शुरू किया था । ये ध्यान देने योग्य बात है कि मेरे परिवार का मुझसे पूर्व संगीत कला से कोई रिश्ता नहीं था । मेरे पिताश्री से पहले के पूर्वजों का पुश्तैनी कार्य शिल्पकारी का था जो कि मेरे प्रातःस्मरणीय दादाजी स्व 0 श्री मदन राम जी के साथ तक रहा पर मेरे पिताश्री स्व 0 श्री कृष्ण लाल जी ने पढाई पर ही ध्यान दिया और पुरानी देहली 6 में कुछ परिचितों की सेवादारी निभाने के साथ साथ 1940-50 के दशक में मैट्रिक प्रथम श्रेणी से पास की । उन्हें उस समय रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से तुरंत नौकरी का आफर आ गया था परन्तु उन्होंने परिचितों के ग़लत सुझावों के चलते उसे ज्वाइन नहीं किया । तदुपरांत उन्होंने अन्य कई जगह काम किया और अंततः सी .एस .आई .आर ( रफ़ी मार्ग , नई देहली ) में पक्की सरकारी पद से पेंशन पाकर सेवानिवृत हुए । मेरी माँ स्व 0 श्रीमति गंगा देवी एक गृहस्थन बन मेरे पिताजी के साथ हाथ बटाने में लगीं रहीं सो उनका भी संगीत से दूर दूर तक कोई रिश्ता , स्नेह या लगाव नहीं था । सो संगीत मुझे विरासतन नहीं अपितु महज अन्य बाहरी लोगों से देखा -सुनी में शौक़ की तरह बचपन से ही चिपक सा गया था ।
हांलाकि बचपन में मेरे संगीत के इस जबरदस्त झुकाव को ना तो घर वालों की तरफ से कोई रोक -टोक मिली और ना ही किसी तरह का कोई प्रोत्साहन । जितना मुझे संगीत अच्छा लगता था उतना ही म़ें पढ़ाई में भी डूबा रहता था । यही कारण रहा कि मैं पहली कक्षा से लेकर ग्याहरवीं तक लगातार अपने विद्यालय का सर्वोच्च छात्र रहा और सी बी एस सी देहली की
ग्याहरवीं कक्षा के वार्षिक परिणामों में अपने इस विद्यालय ( आत्मा राम सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल अजमेरी -गेट देह्ली - 6 ) में इस स्कूल के पिछले कई वर्षों के बोर्ड परीक्षाओं का भी रिकॉर्ड तोड़ते हुए मेरिट -बोर्ड में नाम दर्ज कराया था । ये बात अलग है कि उस समय ना ही उस स्कूल के किसी अध्यापक ने और ना ही प्रधानाध्यापक ने मुझे अकेले में या अन्य के समक्ष इस उपलब्धि पर कोई प्रशस्ति पत्र या मात्र बधाई ही दी या कुछ ऐसी ही कुछ बात कही । आज जबकि लोग ऐसे परिणामों पर आसमान उठा देतें हैं मुझे याद नहीं कि मेरे पिताश्री के अतिरिक्त किसी और ने मेरा उत्साहवर्धन किया था भी या नहीं । पिताजी ने उस वक्त मुझे इनाम स्वरुप एक कलाई घड़ी दी थी जिससे मुझे लगा था कि मैंने कुछ तो प्रशंसात्मक कार्य किया ही था
। स्कूल के ऑनर-बोर्ड पर मेरा नाम था और मैंने ये स्थान प्राप्त किया था ये बात भी मुझे बहुत दिन बाद पता चली ।
बहरहाल उस समय के कई व्यक्ति थे शायद जिनसे प्रभावित होकर ही मैने भी नक़ल करते हुए अनजाने में संगीत का सिलसिला शुरू किया होगा और कालान्तर में ये मेरा मुख्य शौक़ बन गया । उस समय हमारा किराये का मकान हुआ करता था जो की पुरानी देहली की उन गलियों में था जहाँ से कुछ गली दूर ही किसी जमाने में उर्दू जुबां के मशहूर शायर उस्ताद मिर्जा ग़ालिब रहा करते थे । आज तो उस गली के ठीक सामने देहली रेलवे मेट्रो का चावड़ी बाज़ार स्टेशन है । उस समय हमारी गली में चार बाहरी शख्सियतें ऐसी थीं जो लगभग रोजाना अपने स्वयं के शौक़ या रोज़ी के चलते,संगीत से मेरा प्रतक्ष्य सामना करवाते थे । सन 1950 की उस समय की देहली का माहौल आज के देहली से बिल्कुल अलग था और यदि समय के तराजू पर समीक्षा करूँ तो वो आज से बहुत बेहतर भी था । उस दौर के वाकयात रहने वाले लोग उनके तौर -तरीक़े उन सब का हमसे पारस्परिक व्यव्हार हमारी आज गुज़र रही फ्लैट-संस्कृति से बिल्कुल अलग थी । उन सब का ज़िक्र यहाँ करने को दिल कह रहा है,पर वो सब फ़िर कभी किसी और पोस्ट में !
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